Monday, August 9, 2021

आप(स्वरचित)



मेरी सबसे कठिन परीक्षा है आप
तो मेरी सबसे सरल सफलता हैं आप
मेरा सबसे मजबूत विश्वास है आप
तो सबसे कोमल स्पर्श हैं आप
मेरा सबसे कीमती गहना है आप
मेरे हर रिश्ते की शिनाख्त हैं आप
क्या शिकायत करूंगी ऊपर वाले से...
मेरी जिंदगी के कुछ अधूरेपन की
उन्होंने आपको मेरा
बनाकर सब कुछ पूरा कर दिया।
कैसे नजर मिला पाऊंगी ऊपर वाले से कि...
इस नासमझ के लिए वह खुद आपके रुप में मेरा हो गया।।

Monday, July 12, 2021

उपन्यास सम्राट कलम का सिपाही 'प्रेमचंद'

सुप्रसिद्ध साहित्यकारों के मूल नाम के साथ कभी-कभी कुछ उपनाम या विशेषण ऐसे घुल-मिल जाते हैं कि साहित्यकार का मूल नाम तो पीछे रह जाता है और यह उपनाम या विशेषण इतने प्रसिद्ध हो जाते हैं कि उनके बिना कवि या रचनाकार का नाम अधूरा लगने लगता है। साथ ही मूल नाम अपनी पहचान ही खोने लगता है। भारतीय जनमानस की संवेदना में बसे उपन्यास सम्राट 'प्रेमचंद' जी भी इस पारंपरिक तथ्य से अछूते नहीं रह सके।उनका नाम यदि मात्र प्रेमचंद लिया जाय तो अधूरा सा प्रतीत होता है।

उपनाम या तख़ल्लुस से तो बहुत से कवि और लेखक जाने जाते हैं किन्तु 'मुंशी' प्रेमचंद का उपनाम या तखल्लुस नहीं था। ऐसी स्थिति में प्रश्न यह उठता है कि 'प्रेमचंद' के नाम के साथ 'मुंशी' का क्या संबंध था। यह शब्द आखिर जुड़ा कैसे? क्या प्रेमचंद ने कभी मुंशी का काम किया या यह उपाधि उनके परिवार में पिता या पितामह से उनके पास विरासत में हस्तांतरित हुई। साथ ही प्रेमचंद का मूल नाम क्या था और वह बदल कर प्रेमचंद कैसे हो गया? प्रेमचंद के नाम के साथ 'उपन्यास सम्राट' का एक और विशेषण भी जुड़ा हुआ है। यह सब नाम और उपाधियाँ प्रेमचंद के साथ कैसे जुड़ गए- इसके पीछे कुछ रोचक घटनाएँ हैं।

'प्रेमचंद' का वास्तविक नाम 'धनपत राय' था। 'नबावराय' नाम से वे उर्दू में लिखते थे। उनकी 'सोज़े वतन' (१९०९, ज़माना प्रेस, कानपुर) कहानी-संग्रह की सभी प्रतियाँ तत्कालीन अंग्रेजी सरकार ने ज़ब्त कर ली थीं। सरकारी कोप से बचने के लिए उर्दू अखबार "ज़माना" के संपादक मुंशी दया नारायण निगम ने नबाव राय के स्थान पर 'प्रेमचंद' उपनाम सुझाया। यह नाम उन्हें इतना पसंद आया कि 'नबाव राय' के स्थान पर वे 'प्रेमचंद' हो गए।

हिन्दी पुस्तक एजेन्सी का एक प्रेस कलकत्ता में था, जिसका नाम 'वणिक प्रेस' था। इसके मुद्रक थे 'महाबीर प्रसाद पोद्दार'। वे प्रेमचंद की रचनाएँ बँगला के सुप्रसिद्ध उपन्यासकार शरत बाबू को पढ़ने के लिए दिया करते थे। एक दिन शरत बाबू से मिलने के लिए पोद्दार जी उनके घर पर गए। उन्होंने देखा कि शरत बाबू, प्रेमचंद का कोई उपन्यास पढ़ रहे थे। जो बीच में खुला हुआ था। कौतूहलवश पोद्दार जी ने उसे उठा कर देखा कि उपन्यास के एक पृष्ठ पर शरत् बाबू ने 'उपन्यास सम्राट" लिख रखा है। बस, यहीं से पोद्दार जी ने प्रेमचंद को 'उपन्यास सम्राट प्रेमचंद' लिखना प्रारम्भ कर दिया। इस प्रकार धनपत राय से 'प्रेमचंद' तथा 'उपन्यास सम्राट प्रेमचंद' हुए।

प्रेमचंद जी के नाम के साथ 'मुंशी' कब और कैसे जुड़ गया? इस विषय में अधिकांश लोग यही मान लेते हैं कि प्रारम्भ में प्रेमचंद अध्यापक रहे। अध्यापकों को प्राय: उस समय मुंशी जी कहा जाता था। इसके अतिरिक्त कायस्थों के नाम के पहले सम्मान स्वरूप 'मुंशी' शब्द लगाने की परम्परा रही है। संभवत: प्रेमचंद जी के नाम के साथ मुंशी शब्द जुड़कर रूढ़ हो गया। इस जिज्ञासा की पूर्ति हेतु मैंने प्रेमचंद जी के सुपुत्र एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री अमृत राय जी को एक पत्र लिखकर इस विषय में उनकी राय जाननी चाही। अमृतराय जी ने कृपा कर मेरे पत्र का उत्तर दिया। जो इस प्रकार है-

अमृत राय जी के अनुसार प्रेमचंद जी ने अपने नाम के आगे 'मुंशी' शब्द का प्रयोग स्वयं कभी नहीं किया। उनका यह भी मानना है कि मुंशी शब्द सम्मान सूचक है, जिसे प्रेमचंद के प्रशंसकों ने कभी लगा दिया होगा। यह तथ्य अनुमान पर आधारित है। यह बात सही है कि मुंशी शब्द सम्मान सूचक है। यह भी सच है कि कायस्थों के नाम के आगे मुंशी लगाने की परम्परा रही है तथा अध्यापकों को भी 'मुंशी जी' कहा जाता था। इसका साक्षी है प्रेमचंद से संबंधित साहित्य।

इस सम्बन्ध में प्रेमचंद की धर्म पत्नी 'शिवरानी देवी' की पुस्तक 'प्रेमचंद घर में' में प्रेमचंद से संबंधित सभी घरेलू बातों की चर्चा शिवरानी देवी ने की है। पूरी पुस्तक में कहीं भी प्रेमचंद के लिए 'मुंशी' शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है। इससे स्पष्ट है कि उस समय तक प्रेमचंद के नाम के साथ 'मुंशी' का प्रयोग नहीं होता था, और न ही सम्मान स्वरूप लोग उन्हें 'मुंशी' ही कहते थे, अन्यथा शिवरानी देवी प्रेमचंद के लिए कहीं न कहीं 'मुंशी' विशेषण का प्रयोग अवश्य करतीं। क्यों कि इसी पुस्तक में उन्होंने दया नारायण जी के लिए मुंशी जी शब्द का प्रयोग कई बार किया है परन्तु प्रेमचंद के लिए कहीं भी नहीं।
एक उदाहरण देखें-
"आप बीमार पड़े। मुझसे बोले-
हंस की जमानत तुम जमा करवा दो। मैं अच्छा हो जाने पर उसे सँभाल लूँगा।
उनकी बीमारी से मैं खुद परेशान थी उस पर 'हंस' की उनको इतनी फिक्र। मैं बोली, अच्छे हो जाइये, तब सब कुछ ठीक हो जाएगा।"
आप बोले, "नहीं दाखिल करा दो। रहूँ या न रहूँ "हंस" चलेगा ही। यह मेरा स्मारक होगा।"

मेरा गला भर आया। हृदय थर्रा गया। मैंने जमानत के रुपये जमा करवा दिए।
आपने समझा शायद धुन्नू, (अमृत राय घरेलू नाम) जमानत न करा पाए। दयानारायण जी निगम को तार दिया। वे आये। पहले बड़ी देर तक उन्हें पकड़ कर वे (प्रेमचंद) रोते रहे। वे भी रोते थे, मैं भी रोती थी, और मुंशी जी भी रोते थे। मुंशी जी ने कई बार रोकने की चेष्टा की पर आप बोले, 'भाई शायद अब भेंट न हो।अब तुमसे सब बातें कह देना चाहता हूँ। तुमको बुलवाया है, हंस की जमानत करवा दो।"
(प्रेमचंद घर में - शिवरानी देवी, पृष्ठ-७०)

उपर्युक्त तथ्यों से स्पष्ट होता है कि प्रेमचंद के लिए 'मुंशी' शब्द का प्रयोग सम्मान सूचक के अर्थ में कदापि नहीं हुआ है और न ही उनके जीवन काल में उनके नाम के साथ लगाया जाता था। तो फिर यह 'मुंशी' शब्द कब से प्रेमचंद का सान्निध्य पा गया और किस लिए?

प्रेमचंद के नाम, जो प्रकाशकों ने उनकी कृतियों पर छापे हैं उनमें क्रमश: 'श्री प्रेमचंद जी' (मानसरोवर प्रथम भाग), 'श्रीयुत प्रेमचंद (सप्त सरोज), 'उपन्यास सम्राट प्रेमचंद धनपतराय (शिलालेख), प्रेमचंद (रंगभूमि), श्रीमान प्रेमचंद जी (निर्मला)आदि कृतियों पर कहीं भी 'मुंशी' का प्रयोग नहीं हुआ है। जब कि श्री, श्रीयुत, उपन्यास सम्राट आदि विशेषणों का प्रयोग हुआ है। यदि प्रेमचंद के नाम के साथ 'मुंशी" विशेषण का प्रचलन उस समय हो रहा होता तो कहीं न कहीं अवश्य प्रयुक्त होता। मगर मुंशी शब्द का प्रयोग प्रेमचंद जी के साथ कहीं नहीं हुआ है।

प्रेमचंद के नाम के साथ मुंशी विशेषण जुड़ने का एकमात्र कारण यही है कि 'हंस' नामक पत्र प्रेमचंद एवं 'कन्हैयालाल मुंशी' के सह संपादन मे निकलता था। जिसकी कुछ प्रतियों पर 'कन्हैयालाल मुंशी' का पूरा नाम न छपकर मात्र 'मुंशी' छपा रहता था साथ ही प्रेमचंद का नाम इस प्रकार छपा होता था। (हंस की प्रतियों पर देखा जा सकता है)।

संपादक
मुंशी, प्रेमचंद

'हंस के संपादक प्रेमचंद तथा कन्हैयालाल मुंशी थे। परन्तु कालांतर में पाठकों ने 'मुंशी' तथा 'प्रेमचंद' को एक समझ लिया और 'प्रेमचंद'- 'मुंशी प्रेमचंद' बन गए।

यह स्वाभाविक भी है। सामान्य पाठक प्राय: लेखक की कृतियों को पढ़ता है, नाम की सूक्ष्मता को नहीं देखा करता। उसे 'प्रेमचंद' और 'मुंशी' के पचड़े में पड़ने की क्या आवश्यकता थी। फिर कुछ संयोग ऐसा बना कि भ्रम का पक्ष सबल हो गया, वह ऐसे कि एक तो प्रेमचंद कायस्थ थे, दूसरे अध्यापक भी रहे। कायस्थों और अध्यापकों के लिए 'मुंशी' लगाने की परम्परा भी रही है। यह सब मिला कर जन सामान्य में वे 'मुंशी प्रेमचंद' के नाम से जाने जाने लगे। धीरे-धीरे मुंशी शब्द प्रेमचंद के साथ अच्छी तरह जुड़ गया। आज प्रेमचंद का मुंशी अलंकरण इतना रूढ़ हो गया है कि मात्र मुंशी से ही प्रेमचंद का बोध हो जाता है तथा 'मुंशी' न कहने से प्रेमचंद का नाम अधूरा-अधूरा सा लगता है।

Friday, March 19, 2021

शेख-आलम


आलम ब्रजभाषा के प्रमुख मुसलमान कवियों में से एक हैं। कहते हैं ये जन्म के ब्राह्मण थे। एक बार शेख नाम की रंगरेजिन को इनकी पगडी में एक आधा दोहा बँधा मिला,


'कनक छडी सी कामिनी, काहे को कटि छीन, 

जिसकी उसने पूर्ति की, 

'कटि को कंचन काटि बिधि, कुचन मध्य धरि दीन। 

इस पर रीझकर आलम मुसलमान हो गए और उससे निकाह कर लिया। तब से दोनों शेख या आलम के नाम से कविता करने लगे। इनके पुत्र का नाम 'जहान था।

एक बार औरंगजेब के पुत्र मुआलम जो बाद में बहादुर शाह के नाम से गद्दी पर बैठे थे.... ने शेख से मजाक किया, सुना है आप आलम की बीवी हैं, उसने फौरन कहा, जहाँपनाह 'जहान की माँ मैं ही हूँ।

आलम के तीन ग्रंथ हैं- 'माधवानल-काम-कंदला, 'श्याम-सनेही तथा 'आलम-केलि। 'आलम केलि इनके श्रेष्ठ मुक्तकों का संग्रह है।

Wednesday, March 17, 2021

# हकीकत

हकीकत रूबरू हो तो अदाकारी नहीं चलती खुदा के सामने बंदों की मक्कारी नहीं चलती तुम्हारा दबदबा खाली तुम्हारी जिंदगी तक है किसी की कब्र के अंदर जमीदारी नहीं चलती...
-  अज्ञात

Friday, March 5, 2021

#खूबसूरत पंक्तियां

"तुम्हें अगर शौक है बिजलियां गिराने का
 तो हमारा काम भी है आशियां बनाने का
सुना है आप हैं माहिर  हवा चलाने में
 तो हम भी हुनर निचोड़ेंगे दीया जलाने का"       - अज्ञात

#खूबसूरत पंक्तियां: हौसला

"परिंदों को मंजिल मिलेगी यकीनन उनके पर बोलते हैं अक्सर भी लोग खामोश रहते हैं जिनके हुनर बोलते हैं" - अज्ञात

Sunday, February 21, 2021

#खूबसूरत पंक्तियां

" यूँ ही नहीं होती,
हाथ की लकीरों के आगे उँगलियाँ

रब ने भी किस्मत से पहले,
मेहनत लिखी है ..!!! "


- अज्ञात

Thursday, October 15, 2020

अंतिम पेपर का अंतिम सवाल (स्वरचित कविता)


जीत लेने को,गढ़ का सुरूर,
अब बस कुछ कदम दूर,
आजादी के जश्न का गुरूर,
सामने है बस एक अंतिम दस्तूरl

अंतिम पेपर का अंतिम सवाल...

खिड़की से झांकता,खेलते दोस्तों को,
आंखें फेर लेता,देख चलते टेलीविजन को,
मन को बहलाता,कुछ दिन और है पढ़ने को,
उंगलियों पर गिनता,घटते दिन परीक्षा कोl

अंतिम पेपर का अंतिम सवाल...

कल्पना उठती हजारों मन में,
निरंतर उत्साह बढ़ता तन में,
खूब मजे करूंगा छुट्टियों में,
उमंग से पढ़ता,इसी सोच मेंl

अंतिम पेपर का अंतिम सवाल...

आज सामने है खूबसूरत जाल,
बड़ी उमंग से देख मेरा कमाल,
चंद पल रहे हैं मचाने को धमाल,
क्योंकि आ गया है...
अंतिम पेपर का अंतिम सवालl



मींरा (1498-1573 ईसवी)


*मीराबाई
(1498-1573) सोलहवीं शताब्दी की एक कृष्ण भक्त और कवयित्री थीं।

*उनकी कविता कृष्ण भक्ति के रंग में रंग कर और गहरी हो जाती है।

*मीरा बाई ने कृष्ण भक्ति के स्फुट पदों की रचना की है।

*मीरा कृष्ण की भक्त हैं।

*मीराबाई का जन्म पाली के कुड़की गांव में दूदा जी के चौथे पुत्र रतन सिंह के घर हुआ।

*ये बचपन से ही कृष्ण भक्ति में रुचि लेने लगी थीं।

*मीरा का विवाह मेवाड़ के सिसोदिया राज परिवार में हुआ।

* उदयपुर के महाराजा भोजराज इनके पति थे जो मेवाड़ के महाराणा सांगा के पुत्र थे।

*विवाह के कुछ समय बाद ही उनके पति का देहान्त हो गयाl

* वे विरक्त हो गई और साधु-संतों की संगति में हरिकीर्तन करते हुए अपना समय व्यतीत करने लगी।

*पति के परलोकवास के बाद इनकी भक्ति दिन-प्रतिदिन बढ़ती गई।

*ये मंदिरों में जाकर वहाँ मौजूद कृष्णभक्तों के सामने कृष्णजी की मूर्ति के आगे नाचती रहती थी। 
*मीराबाई का कृष्णभक्ति में नाचना और गाना राज परिवार को अच्छा नहीं लगा।

*उन्होंने कई बार मीराबाई को विष देकर मारने की कोशिश की।

*घर वालों के इस प्रकार के व्यवहार से परेशान होकर वह द्वारका और वृंदावन गई।

*वह जहाँ जाती थी,वहाँ लोगों का सम्मान मिलता था।

*लोग उन्हे देवी के जैसा प्यार और सम्मान देते थे।

*मीरा का समय बहुत बड़ी राजनैतिक उथल-पुथल का समय रहा है।

*बाबर का हिंदुस्तान पर हमला और प्रसिद्ध खानवा का युद्ध उसी समय हुआ था।

*इस सभी परिस्तिथियों के बीच मीरा का रहस्यवाद और भक्ति की निर्गुण मिश्रित सगुण पद्धत्ति सर्वमान्य  बनी।

* मीराबाई की रचनाएं

- नरसी जी रो मायरो
- गीत गोविंद की टीका
राग गोविंद
- राग सोरठ
- राग विहाग

*मीरा की भक्ति माधुरी दांपत्य भाव की मानी जाती है

* मीरा का बचपन का नाम पेमल था

* मीरा के पदों को उनकी सहेली ललिता ने लिपिबद्ध किया

* सुमित्रानंदन पंत ने मीरा की भक्ति के तपोवन की शकुंतला और मरुधर की मंदाकिनी कहा है

* मीरा के गुरु रैदास थेl

Tuesday, October 13, 2020

पहली पोस्टिंग का एहसास (स्वरचित कविता)


कभी सोचा ना था,
ऐसा दिन भी आएगा..
यह पहली पोस्टिंग का एहसास था
जो कहीं और ले कर जाएगाl

कुछ समझ ना पाई,
कुछ संभल ना पाई,
उस दिन कुछ ऐसे ही
विश्वास ना कर पाईl

जानती तो सब कुछ थी,
पर कल्पना नहीं की थी,
अपने गांव को ही अपना
निश्चित कोना मान चुकी थीl

यह मेरी जिंदगी की पहली उड़ान थी,
आशातीत आकाश खुला था
बस मैं उड़ना नहीं जानती थी
लेकिन उस दिन फड़फड़ा लेना चाहती थीl

जिंदगी में पहली बार बाहर निकली थी,
हर परिवर्तन में ढल जाना चाहती थी,
हर खुशी को अपना बना लेना चाहती थी,
जी हां मैं अपने पति की पहली पोस्टिंग को यादगार बना लेना चाहती थीl

नया शहर,नए लोग,
नई दुकानें तो नए मंदिर,
बस देखते ही देखते जिंदगी से जुड़ते गए
लगा जैसे उनको मेरी राह में बरसों बीत गएl

हर पल जो फिसलता जा रहा था,
उसे रोक लेना चाहती थीl
हर क्षण जो बिखरता जा रहा था,
उसे सिमेट लेना चाहती थीl
हर चीज जिसमे परायापन था,
उसे अपना बना लेना चाहती थीl
किराए के घर की अनजान गली में
खूबसूरत सफर जी लेना चाहती थीl

कभी सोचा ना था,
जिंदगी का ऐसा अध्याय खुलेगा..
यह पहली पोस्टिंग का एहसास था
जो इतनी खुशियां लाएगा...

Sunday, September 27, 2020

अपनी हिंदी( स्वरचित कविता)


"बहुत ही मीठी है अपनी हिंदी

कहीं इसका स्वाद खट्टा ना हो जाए,

बहुत ही सुंदर है अपनी हिंदी

कहीं इसका श्रृंगार कम ना पड़ जाए,

बड़ी सरल है अपनी हिंदी

कहीं कठिनाइयों में उलझ ना जाए,

नाज़ हैं अपना ताज है अपना हिंदी

कहीं इसके सम्मान में कमी ना हो जाए,

एक शब्द के अनेक अर्थ

अनेक शब्दों का एक अर्थ

बड़ा ही विचित्र भंडार रखती है मेरी हिंदी

कहीं इसकी संपन्नता कम ना हो जाए,

जागो उठो परचम लहराओ

हिंदी के गौरव में कहीं कमी ना रह जाए,

उन्नति का आसमान छुए अपनी हिंदी

कहीं अपना कदम छोटा ना पड़ जाए।"

( स्वरचित)

***

अधूरा है संसार बिना बेटियां (स्वरचित कविता)


रात के अंधेरे में जुगनू-सी है बेटियां,
शबनम पर ओस की बूंद-सी है बेटियां,
दिन की तपन में शीतल छाया-सी है बेटियां,
पराई होकर भी अपनी है बेटियां।

निराशा में आशा की किरण है बेटियां,
चार दीवारों के सन्नाटे में मधुर स्वर है बेटियां,
रिश्तो की बागडोर मे रेशम है बेटियां,
पराया को अपना मान सकती हैं सिर्फ बेटियां।

रुलाती है तो हंसाती भी है बेटियां,
चिढ़ाती है तो मनाती भी हैं बेटियां,
हर त्योहार की प्रति छाया है बेटियां,
संस्कार की परिभाषा है बेटियां,

हर जख्म की मरहम है बेटियां,
हर दवा में दुआ है बेटियां,
हर गम को,
कम करने की ताकत है बेटियां
कैसी हो मां पूछ कर,
हर दर्द मिटा देती हैं बेटियां।

हर गीत का सूर है बेटियां,
हर नाच की ताल है बेटियां,
हर जीत का जश्न है बेटियां,
हर कला की शैली है बेटियां।


समाज की अभद्रता से दूर हैं बेटियां,
जगत के कुरूपता में हूर है बेटियां,
सोलह श्रृंगार का असली नूर है बेटियां
परिवार के मान-सम्मान की गुरुर है बेटियां,

पिता का ताज है बेटियां,
मां का नाज है बेटियां,
भाई की कलाई की शान है बेटियां
घर वहीं जहां बहू बन जाती है बेटियां

सच में अधूरा है संसार बिना बेटियां।

***
27 सितंबर 2020
राष्ट्रीय बेटी दिवस
(भारत)

Monday, September 14, 2020

मेरे पति का दफ्तर (स्वरचित कविता)


यह वही इमारत है
जिसकी आधी वफादार मैं हूंl
जगती हूं हर रोज जल्दी
तो देर यहां नहीं होती है
बड़ा ही विचित्र लगाव है
मेरे पति का इस दफ्तर से..
जुड़े थे मेरे लिए इस दफ्तर से..
आज मेरा नंबर इसके बाद लगता हैl
...........मेरे पति का दफ्तर

यह वही मंदिर है
जिसकी आधी पुजारिन मैं हूंl
करती हूं घर से हर रोज दीया
तो ज्योत यहां जगती है
बड़ा ही विचित्र रिश्ता हैं
मेरा इस दफ्तर से..
जब ज्योत यहां जगती हैं
तो वहां मेरे घर का चूल्हा जगता है
..........मेरे पति का दफ्तर

यह वही रणभूमि है
जिसकी आधी वीरांगना मैं हूंl
सोती नहीं मैं आधी रातों तब
जब तक यह जगता है
बड़ा ही विचित्र सौदा है
हमारा इस दफ्तर से...
युवावस्था का स्वर्णिम काल लेकर
बुढ़ापा कोहिनूर बनाता है
..........मेरे पति का दफ्तर

14 सितंबर 'हिंदी दिवस'




"मजहब नहीं सिखाता,आपस में बैर रखना
हिन्दी हैं हम,वतन है हिन्दोस्ताँ हमारा"

मोहम्मद इकबाल साहब की इन पंक्तियों पर हमें गर्व होना चाहिए कि हम इतनी बड़ी आबादी वाले  देश हिंदुस्तान के रहने वाले हैं और भाषा ही हमारी पहचान है
 
"पग पग पर बदले  पानी
पग पग पर बदले वाणी..."
 
 "विविधता में एकता भारत की विशेषता"

भले ही हिंदुस्तान विभिन्न बोलियों के मोतियों की माला वाला देश रहा है लेकिन इस हिंदुस्तान की माला का धागा हमेशा हिंदी ही रहा है..

आज 14 सितंबर संपूर्ण भारत में हिंदी दिवस के रूप में मनाया जाता है...

कहा जाता है 'व्यौहार राजेन्द्र सिंहा' का जन्म दिवस आज के दिन पड़ता हैl उनका अमूल्य योगदान रहा है हिंदी के विकास में... उनकी ही याद में हिंदी दिवस 14 सितंबर को मनाया जाता हैl

*आज से 43 साल पहले अटल बिहारी वाजपेयी ने संयुक्त राष्ट्र में हिंदी में बोलने का फैसला किया...वे उस समय मोरारजी देसाई की सरकार में विदेश मंत्री थे... सन 1977 में संयुक्त राष्ट्र महासभा का 32वां सत्र था...संयुक्त राष्ट्र महासभा में उनका पहला संबोधन था और उन्होंने अपनी बात हिंदी में कहने का फैसला किया।

गर्व है हमें राष्ट्र के इन नेताओं पर।

*प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने  संयुक्त राष्ट्र महासभा के 75वें सत्र में हिंदी भाषा में संबोधित किया। उन्होंने अपने संबोधन में वैश्विक चुनौतियों के साथ भारत की उपलब्धियों को भी रेखांकित किया। 

*प्रधानमंत्री मोदी इससे पहले भी संयुक्त राष्ट्र में संबोधित कर चुके हैं। वह देश के लिए सम्मान और गौरव के क्षण थे।

*इससे पहले बीते वर्ष देश के सम्मान में उस समय और अधिक इजाफा हुआ था जब संयुक्त राष्ट्र संघ ने ट्विटर पर हिंदी में अपना अकाउंट बनाया और हिंदी भाषा में ही पहला ट्वीट किया। पहले ट्वीट में लिखा संदेश पढ़कर हर भारतीय का सीना गर्व से चौड़ा हो जाएगा। इतना ही नहीं संयुक्त राष्ट्र संघ ने फेसबुक पर भी हिंदी पेज बनाया है।



हिंदी की बिंदी की माध्यम से मेरा एक प्रयास है हिंदी को बढ़ावा देनाl
हमारी भाषा ही हमारी पहचान है और अपनी पहचान को एक नया स्तर तक पहुंचाना.. मैं अपना कर्तव्य समझती हूं।

*हिन्दी दिवस प्रत्येक वर्ष 14 सितम्बर को मनाया जाता है।

*14 सितम्बर 1949 को संविधान सभा ने सर्वसम्मति से यह निर्णय लिया कि हिंदी ही भारत की राजभाषा होगी।

*इसी महत्वपूर्ण निर्णय के महत्व को प्रतिपादित करने तथा हिन्दी को हर क्षेत्र में प्रसारित करने के लिये राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वर्धा के अनुरोध पर वर्ष 1953 से पूरे भारत में 14 सितम्बर को प्रतिवर्ष हिन्दी-दिवस के रूप में मनाया जाता है।

*एक तथ्य यह भी है कि 14 सितम्बर 1949 को हिन्दी के पुरोधा व्यौहार राजेन्द्र सिंहा का 50-वां जन्मदिन था, जिन्होंने हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए बहुत लंबा संघर्ष किया ।

*स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्थापित करवाने के लिए काका कालकेलकर मैथिलीशरण गुप्त हजारी प्रसाद द्विवेदी सेठ गोविंद दास आदि साहित्यकारों को साथ लेकर व्यौहार राजेन्द्र सिंहा ने अथक प्रयास किए।

*मुझे मेरी भाषा हिंदी पर गर्व है क्योंकि मेरी हिंदी का प्रथम वर्ण 'अ' से अज्ञ से शुरु होकर 'ज्ञ' से ज्ञान तब लेकर जाता है।

*भारत की नागरिक होने के नाते मुझे आज गर्व है कि मैंने मेरी ब्लॉग की शुरुआत हिंदी में ही की..
मैं गूगल की आभारी हूं क्योंकि उन्होंने ब्लॉक में हिंदी भाषा की टाइपिंग को जोड़ा।

*सन्1918 में गांधीजी ने हिंदी साहित्य सम्मेलन में हिन्दी भाषा को राष्ट्रभाषा बनाने को कहा था। इसे गांधी जी ने जनमानस की भाषा भी कहा था।

*14 सितम्बर 1949 को काफी विचार-विमर्श के बाद यह निर्णय लिया गया जो भारतीय संविधान के भाग 17 के अध्याय की अनुच्छेद 343(1) में इस प्रकार वर्णित है:

*संघ की राष्ट्रभाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी होगी। संघ के राजकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग होने वाले अंकों का रूप अंतर्राष्ट्रीय रूप होगा।

 *बोलने वालों की संख्या के अनुसार अंग्रेजी और चीनी भाषा के बाद हिन्दी भाषा पूरे दुनिया में तीसरी सबसे बड़ी भाषा है।
-लेकिन उसे अच्छी तरह से समझने, पढ़ने और लिखने वालों में यह संख्या बहुत ही कम है।

इस कारण ऐसे लोग जो हिन्दी का ज्ञान रखते हैं या हिन्दी भाषा जानते हैं, उन्हें हिन्दी के प्रति अपने कर्तव्य का बोध करवाने के लिए इस दिन को हिन्दी दिवस के रूप में मनाया जाता है

जिससे वे सभी अपने कर्तव्य का पालन कर हिन्दी भाषा को भविष्य में विलुप्त होने से बचा सकें।

-लेकिन लोग और सरकार दोनों ही इसके लिए उदासीन दिखती है।हिन्दी को आज तक संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा नहीं बनाया जा सका है।

*इसे विडंबना ही कहेंगे कि योग को 177 देशों का समर्थन मिला, लेकिन हिन्दी के लिए 129 देशों का समर्थन क्या नहीं जुटाया जा सकता?

* हिंदी की बिंदी मेरा पहला कदम है।

* गर्व इस बात पर नहीं कि कहां तक जाएगा जबकि इस बात पर है कि बढ़ रहे पाश्चात्यकरण की स्थिति में मेरा यह कदम एक हिंदुस्तानी की आत्मा का प्रतिदर्शी होगा।

Friday, September 11, 2020

आज दादा जी का श्राद्ध था (स्वरचित कविता)


सुबह जल्दी उठने का दिन था
खीर पुरी बनाने का नियम था
चल रहा उस वक्त पितृपक्ष था
और आज दादा जी का श्राद्ध था

मेरा बेटा भी उठ गया,मेरे साथ था
क्या कर रही हो यह उसका सवाल था
श्राद्ध उसे समझाना मेरा मंतव्य था
पुश्तैनी रीति रिवाज उसे सौंपना कर्तव्य था
आज दादा जी का श्राद्ध था....

जो चले जाते हैं दुनिया से,
कौवा बन मिलने आते हैं अपनों से,
तर्पण होता है उनकी पसंदीदा व्यंजन से,
श्राद्ध होता है बस श्रद्धा से,

मम्मा प्यार तो मैं भी करता हूं आप से,
मैं क्या रखूं आपके लिए पूछा उसने धीरे से,
सुनकर मुस्कुरा पड़ी मैं खुशी से,
जीते जी मिल गया हर तर्पण उन कोमल शब्दों से,

मासूमियत से उसने कुछ कहा था..
असल में कुछ में सब कुछ कह दिया था..
चल उस वक्त पित्र पक्ष था
और आज दादाजी का श्राद्ध थाll


Saturday, September 5, 2020

राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त


मैथिलीशरण गुप्त का जन्म 3 अगस्त 1886 में पिता सेठ रामचरण कनकने और माता काशी बाई की तीसरी संतान के रूप में उत्तर प्रदेश में झांसी के पास चिरगांव में हुआ।

प्रथम काव्य संग्रह "रंग में भंग" तथा बाद में "जयद्रथ वध" प्रकाशित हुई। उन्होंने  बंगाली के काव्य ग्रन्थ "मेघनाथ वध", "ब्रजांगना" का अनुवाद भी किया। सन् 1912 - 1913 ई. में राष्ट्रीय भावनाओं से ओत-प्रोत  "भारतभारती' का प्रकाशन किया। उनकी लोकप्रियता सर्वत्र फैल गई।


*महाकाव्य- साकेत, यशोधर

*खण्डकाव्य- जयद्रथ वध, भारत-भारती, पंचवटी, द्वापर, सिद्धराज, नहुष, अंजलि और अर्घ्य, अजित, अर्जन और विसर्जन, काबा और कर्बला, किसान, कुणाल गीत, गुरु तेग बहादुर, गुरुकुल , जय भारत, युद्ध, झंकार , पृथ्वीपुत्र, वक संहार

 *शकुंतला, विश्व वेदना, राजा प्रजा, विष्णुप्रिया, उर्मिला, लीला, प्रदक्षिणा, दिवोदास भूमि-भाग

*नाटक - रंग में भंग , राजा-प्रजा, वन वैभव , विकट भट , विरहिणी , वैतालिक, शक्ति, सैरन्ध्री  स्वदेश संगीत, हिड़िम्बा , हिन्दू, चंद्रहास

Friday, September 4, 2020

वह मेरी शिक्षिका थी (स्वरचित कविता)


बचपन में मां जिसके भरोसे मुझे स्कूल छोड़कर निश्चिंत लौट जाया करती थी..
मां की याद में जिसका आंचल मे सिसका करती थी..
पानी की बोतल और टिफिन का ढक्कन जिसने खोलना सिखाया..वह मेरी शिक्षिका थी
दिन को रात भी अगर जिसने कह दिया उस पर भी विश्वास करने वाला अंधविश्वास जिसका था वह मेरी पहली शिक्षिका थी..

मेरी प्राइमरी शिक्षिका शिक्षिका नहीं मेरी दूसरी मां-सी थी

ज्ञान तो किताबों में भी पड़ा है जो व्यावहारिक ज्ञान दिया करती थी...
सैद्धांतिक तरीके से उठना बैठना आना-जाना
जिस ने सिखाया था वह मेरी शिक्षिका थी..
मां का प्यार और पिता की डांट तो अक्षर खूब मिला करती थी
पर प्यार से डांट जिसकी मिलती थी वह मेरी शिक्षिका थी

मेरी शिक्षिका मेरी शिक्षिका नहीं निष्पक्ष पिता-सी थी

सच्ची सहेली की तरह सही गलत की राय देने वाली..
लड़की हूं हजार विकट घड़ियों में जिसने रास्ता दिखाया वह मेरी शिक्षिका थी..
कल्चरल प्रोग्राम की देर समाप्ति पर जब तक मां नहीं आई तब तक जो हाथ थामे खड़ी थी वह मेरी शिक्षिका थी..
जौहरी की तरह परख कर मेरे हुनर को हीरे के रूप में तराश कर जो दुनिया के सामने लाई थी वह मेरी शिक्षिका थी
मेरी प्रस्तुतीकरण पर तालियों की गड़गड़ाहट में मेरे उज्जवल भविष्य का जो उद्घोष लेकर खड़ी थी वह मेरी शिक्षिका थी
एक इंसान एक रिश्ता निभाता है जिसने हर रिश्ता बखूबी निभाया मेरी शिक्षिका थी

माना अभी तक पैरों पर खड़ी नहीं हो पाई लेकिन बार-बार उठने की कोशिश करते रहना जिस ने सिखाया था वह मेरी शिक्षिका थी

मेरी शिक्षिका मात्र शिक्षिका नहीं मेरी जिंदगी की सफलताओं की कुंजी थी


*मेरी जिंदगी से जुड़ी हर शिक्षिका-शिक्षक को शिक्षक दिवस की ढेर सारी शुभकामनाएं*


Monday, August 31, 2020

मेरे स्कूल के दिन (स्वरचित कविता)


मेरे स्कूल के दिन...
जैसे सुलझे बालों में,
उलझी पिन...
आज भी याद है

मेरे स्कूल के दिन..

खिड़की के पर्दे से झांक रही हल्की रोशनी मे उठा करते थे
सीपी सी अध खुली आंखों से ही नहा लिया करते थे,
चटकीली नीली गगरी उस पर सफेद कमीज
पहन कहर ढाया करते थे,
लाल रिबन से दो चोटियों बांध घंटों शीशे के सामने खुद को संवारा करते थेl

आहा!मेरे स्कूल के दिन...

आज लंच बॉक्स में क्या है?मां जैसे सवाल
तो दिनचर्या के हिस्से हुआ करते थे,
घंटों रगड़ कर काले जूतों को भी सफेदी सा चमका दिया करते थे,
झुलते मौजों में रबड़ बांध उनमें जान फूंक दिया करते थे,
भले कबाड़ से जुगाड़ हो पर कभी किसी चीज की कमी महसूस नहीं किया करते थे,


मेरे स्कूल के दिन...

सुबह की घनघोर घटाओं से प्यारी चिड़िया की चहचहाहट हुआ करती थी,
उससे भी प्यारी दूर कहीं से आती हुई स्कूल की घंटी की आवाज हुआ करती थी,
पीटीआई मैडम के डर से मिनटों में सफर पैदल ही तय कर लिया करती थी,
रास्ते में हर बूढ़े इंसान से जय राम जी की काकी कह कर सारे रिश्तो के बीज बिखेरा करती थी,

मेरे स्कूल के दिन..

24 घंटों मे चंद पलों की प्रार्थना में न जाने आंखें खोलकर क्या राज देखा करती थी,
खुद की गलती ना पकड़े जाने पर अक्सर गढ़ जीत लिया करती थी,
सोमवार से आखिरी दिन तक यूनिफॉर्म को हथेली के छाले की तरह रखा करती थी,
क्योंकि उस वक्त इस्त्री सप्ताह में 1 दिन ही हुआ करती थी,
स्वच्छता अनुक्रमाणिका से लेकर सर्वश्रेष्ठ की अंक तालिका तक अक्सर में छाए रहा करती थी,
स्कूल की बाई जी मुझे लाडली कह कर पुकारा करती थी,
हर अध्यापक की में चहेती हुआ करती थी

मेरे स्कूल के दिन...

इंटरवल को हम रेसिस बोला करती थी,
पावलव थ्योरी के अनुसार न जाने क्यों रेसिस की घंटी बजने से ही तेज भूख लग जाया करती थी,
इंटरवल के आधे घंटे में जिंदगी की सारी हंसी खेल खेल लिया करती थी,
पर भाग्य से मेरी पकड़ने की बारी आती ही इंटरवेल की घंटी बज जाया करती थीl

मेरे स्कूल के दिन..

गणितीय सूत्र हो या रसायन सूत्र ट्रिक बनाकर
तोते की तरह ही रख लिया करती थी,
पर सामाजिक इतिहास के लंबे-लंबे पन्ने गिन कर ही घबरा जाया करती थी,
SUPW कैंप की तो बात ही क्या!
360 दिनों के बंदिश की भड़ास उन 5 दिनों की आजादी के जश्न में निकाल दिया करती थी,

मेरे स्कूल के दिन...

हमारी कक्षा प्रिंसिपल ऑफिस के पास लगा करती थी,
क्योंकि हम बदमाशी में भी अव्वल रहा करती थी,
बिन बातें हम सहेलियां घंटों बतलाया करती थी,
मुंह पर अंगुली रखने वाली सजा में दूसरी उंगली से स्लेट पर लिख लिख कर बातें किया करती थी..
वैकल्पिक प्रश्न पत्र तो हम इशारों में ही पूरे कर लिया करती थी,
एक नंबर गलत कट जाने पर अध्यापक से घंटों लड़ा करती थी,
और एक नंबर अतिरिक्त मिल जाने पर आईआईटी की डिग्री ही जीत लिया करती थी,
खुद से ज्यादा आरामदायक जगह तो अपने बैग को दिया करती थी,

मेरे स्कूल के दिन...

हम स्कूल को विद्या मंदिर कहा करती थी,
दोस्तों हम मां सरस्वती की सौगंध पर ही पूरा सच उगल लिया करती थी,
इन छोटी-छोटी बर्फ के टुकड़ों सी खुशियों से ही हम आनंद का हिमालय खड़ा कर लिया करती थी,
जी हां! हम तितलियों की तरह अपने गुलिस्ता की महारानियां कहलाया करती थी

मेरे स्कूल के दिन..
जैसे सुलझे बालों में,
उलझी पिन...
आज भी याद है

Saturday, August 29, 2020

वो बारिश की पहली बूंद (स्वरचित कविता)


वो बारिश की पहली बूंद,
अंतिम रात में आंखें मूंद,
सच करने को अपना सपना
सूरज का रास्ता ताकती होगीl

वो बारिश की पहली बूंद..

जानती तो वो सब कुछ होगी
फिर भी अनजान बनती होगी..
मंजिल से पहले ही धरती की
तपन में हस्ती मुझे खोनी होंगी..
जब जीवन ही मरण के लिए है तो
मरण का यही रास्ता चुनती होगी..
खुद को जलाकर अनुचर झड़ी
सखियों का रास्ता शीतल करती होगी

वो बारिश की पहली बूंद..

कुछ कर सके या ना कर
सके पर बहुत कुछ कर देगी..
इस दृढ़ विश्वास के साथ
अपना सामान बांधती होगी..
जब एक चिंगारी आग लगा दे तो
वो बूंद भी मेरी जैसी होगी..
जो महासागर बनाती होगी
रंगहीन होकर भी धरती
को रंगीन बना देगी
इसी उमंग में इंद्रधनुष के सारे रंगों से
रगड़ रगड़ कर वो नहाती होगी..

वो बारिश की पहली बूंद..

करोड़ों लोग मेरी एक झलक पाने को आतुर
यह सोच खुद को कितना सजाती होगी
गर्म लू के झोंके कहीं नजर ना लगा दे मुझे
सोच कर खुद को काजल का टीका लगाती होंगी
आह!मई जून की अंगारों सी धरती
को कितनी जरूरत मेरी होगी..
ऐसा सोच कर अपना पहला
कदम वो भरती होगी..

वो बारिश की पहली बूंद..
अंतिम रात में आंखें मूंद..
अपने इसी त्याग और बलिदान
की कविता सुनाने...
सूरज का रास्ता तकती होगी...

वो बारिश की पहली बूंद...

Thursday, August 27, 2020

प्रकृति के सुकुमार कवि सुमित्रानंदन पंत


पंत जी का प्रारंभिक नाम गुसाईं दत्त रखा गया था 1921 में महात्मा गांधी एवं असहयोग आंदोलन से प्रभावित होकर कॉलेज छोड़ दिया था चौथी कक्षा में पंत जी ने कविता लिखनी शुरू की थी पंथ के प्रथम कविता गिरजे का घंटा सन् 1916 प्रकाशित हुई 

प्रसाद के काव्य को चार भागों में बांटा जा सकता है
 प्रथम चरण(छायावादी)
-उच्छवास 
-ग्रंथि 
-वीणा 
-पल्लव 
-गुंजन 
द्वितीय चरण (प्रगतिवादी युग)
- युगांत
- युगवाणी
-ग्राम्या 
तृतीय चरण (अरविंद दर्शन से प्रभावित)
-स्वर्ण किरण
- स्वर्ण धूलि
-युगांतर
-युगपथ
चतुर्थ चरण (मानवीय दर्शन से प्रभावित)
-रजत शिखर
- अतिमा
-वापी
-कला और बूढ़ा चांद
 -चिदंबरा
-लोकायतन
- खादी के फूल (बच्चन  जी  के साथ मिलकर लिखा)

Wednesday, August 26, 2020

कवि हरिवंश राय बच्चन (हालावादी कवि)


आप का जन्म 27 नवंबर 1907 के दिन बापूपट्टी गाँव, जिला प्रतापगढ़ में हुआ था। उनकी प्रसिद्ध रचना “मधुशाला” आज भी श्रोताओं का मन मोह लेती है। श्रेष्ठतम कवि बच्चन जी कविता और लेखन योगदान के लिए पद्म भूषण विजेता भी बने।वह एक कायस्थ परिवार से थे। उनके माता-पिता का नाम प्रताप नारायण श्रीवास्तव और सरस्वती देवी था। छोटी आयु में उन्हे बच्चन नाम से पुकारा जाता था। जिसका अर्थ “बच्चा” होता है। जिस कारण आगे चल कर उनका सरनेम “बच्चन” हुआ। हकीकत में उनका सरनेम श्रीवास्तव है। आपकी रचनाएं: 

1.तेरा हार (1929)
 2.मधुशाला (1935)
3.मधुबाला (1936)
4.मधुकलश (1937)
5.आत्म परिचय (1937)
6.निशा निमंत्रण(1938,)
7.एकांत संगीत (1939)
8.आकुल अंतर (1943)
9.सतरंगिनी (1945)
10.हलाहल (1946)
11.बंगाल का काल (1946)
12.खादी के फूल (1948)
13.सूत की माला (1948)
14.मिलन यामिनी (1950)
15.प्रणय पत्रिका (1955)
16.धार के इधर-उधर (1957)
17.आरती और अंगारे (1958)
18.बुद्ध और नाचघर (1958)
19.त्रिभंगिमा (1961)
20.चार खेमे चौंसठ खूंटे (1962)
21.दो चट्टानें (1965)
22.बहुत दिन बीते (1967)
23.कटती प्रतिमाओं की आवाज़ (1968)
24.उभरते प्रतिमानों के रूप (1969)
25.जाल समेटा (1973)


बीसवीं सदी के नवीनतम और सुप्रसिद्ध कवि,“मधुशाला” के रचयिता, पद्म श्री से सम्मानित भी ।

5 सितंबर का दिन था (स्वरचित कविता)


5 सितंबर का दिन था..
मन यह सोचने में लीन था
जीवन का सुधारा किसने सीन था
इसी विचार से मैं थोड़ा खिन्न था।

5 सितंबर का दिन था..

एक ही मां के दो बच्चों में,
एक आदमी तो एक हैवान क्यों
एक ही पिता के दो बच्चों में,
एक पुलिस तो एक चोर क्यों?
एक ही कक्षा के सारे बच्चों में,
कुछ काबिल तो कुछ कमजोर क्यों?
एक ही समाज के लोगों में,
कुछ सेवी तो कुछ पापी क्यों?

5 सितंबर का दिन था..

जिंदगी के हर मोड़ पर शिक्षक मिले कई
पर सीखने के लिए शिक्षक का ही होना काफी नहीं
चींटी से भी सीख ली जा सकती है नई
अगर सीखने वाला सच्चा शिक्षार्थी हो कहीं

5 सितंबर का दिन था..

सबकी जिंदगी के रंगमंच में होता है अंतर
हालात और परिस्थिति से बड़ा नहीं कोई सिकंदर
आज तक जान न पाया कोई यह जंतर-मंतर
यह बन शिक्षक बदलता है सब का मुकद्दर

5 सितंबर का दिन था..

हालात और परिस्थिति के आगे झुकी हर पढ़ाई
तहे दिल से इन्हे ही शिक्षक दिवस की हो बधाई।

5 सितंबर का दिन था..

Tuesday, August 25, 2020

सफर, लाडो से लाडी तक का (स्वरचित कविता)




एक अनजाने घर के सामने
एक अनजानी गली की राह में,
गाड़ी रोकी मेरी किस्मत ने
घबराहट थी दिल की थाह मेंl

सब लोग दौड़ पड़े मेरी ओर,
लाडी आई सुनाई दिया कुछ ऐसा ही शोर
मैं इठला पड़ी इस कोर,
मैं तो लाडो हूं आपकी लाडी किस ठौर?

लोग नए, रिश्ते नए
घर नए ,परिवार नए
यहां तक की खिड़कियां नई
तो कबर्ड भी नएl

पर सच तो है यह सब नया नहीं,
पुराना दस्तूर है सदियों का कई

यह एक ही जिंदगी में मिलने वाला
औरत का दूसरा जन्म है सही?
मेरे साथ भी यह सब होने वाला
उस दिन,समझ ना पाईl

यह सिर्फ नया सफर ही नहीं,
इसकी मंजिल भी नई होगीl
अब से परिवार मेरा नहीं,
मैं परिवार के लिए होंऊंगीl
अब से मैं किसी की चिंता नहीं,
सारी चिंताएं मेरी होगीl
जी हां अब से मैं लाडो नहीं,
लाडी कहलाऊंगीl

खैर वक्त की तस्वीर बदलती गई,
रिश्तो की डोर सुलझती गई,
तनाव के नसे की मैं आदी होती गई
शायद दूसरा अध्याय समझती गईl

आज कई सालों बाद,

पुराने घर के सामने,
पुरानी गली की राह में,
गाड़ी रोकी मेरे हमसफ़र ने,
उत्साह था दिल की थाह में,

मां दौड़ी मेरी ओर,
लाडो आई सुनाई दिया कुछ ऐसा ही शोर।
मैं मुस्कुरा पड़ी इस कोर,
मैं तो लाडी हूं आपकी लाडो किस ठौर?

बहुत ही छोटा फेरबदल है इन शब्दों का
पर बहुत लंबा हैlसफर,लाडो से लाडी तक का l

Sunday, August 23, 2020

महादेवी वर्मा आधुनिक मीरा




महादेवी वर्मा (26मार्च 1907 — 11 सितंबर 1987) हिन्दी की सर्वाधिक प्रतिभावान कवयित्रियों में से हैं।

 हिन्दी साहित्य में छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक मानी जाती हैं। आधुनिक हिन्दी की सबसे सशक्त कवयित्रियों में से एक होने के कारण उन्हें आधुनिक मीरा के नाम से भी जाना जाता है। कवि निराला ने उन्हें “हिन्दी के विशाल मन्दिर की सरस्वती” भी कहा है। 

महादेवी ने दीपशिखा में वह जन-जन की पीड़ा के रूप में स्थापित हुई और उसने केवल पाठकों को ही नहीं समीक्षकों को भी गहराई तक प्रभावित किया। 

उन्होंने खड़ी बोली हिन्दी की कविता में उस कोमल शब्दावली का विकास किया जो अभी तक केवल बृजभाषा में ही संभव मानी जाती थी। 


इसके लिए उन्होंने अपने समय के अनुकूल संस्कृत और बांग्ला के कोमल शब्दों को चुनकर हिन्दी का जामा पहनाया।

संगीत की जानकार होने के कारण उनके गीतों का नाद-सौंदर्य और पैनी उक्तियों की व्यंजना शैली अन्यत्र दुर्लभ है। उन्होंने अध्यापन से अपने कार्यजीवन की शुरूआत की और अंतिम समय तक वे प्रयाग महिला विद्यापीठ की प्रधानाचार्या बनी रहीं।


उनका बाल-विवाह हुआ परंतु उन्होंने अविवाहित की भांति जीवन-यापन किया। प्रतिभावान कवयित्री और गद्य लेखिका महादेवी वर्मा साहित्य और संगीत में निपुण होने के साथ-साथ कुशल चित्रकार और सृजनात्मक अनुवादक भी थीं।

उन्हें हिन्दी साहित्य के सभी महत्त्वपूर्ण पुरस्कार प्राप्त करने का गौरव प्राप्त है। भारत के साहित्य आकाश में महादेवी वर्मा का नाम ध्रुव तारे की भांति प्रकाशमान है।


 गत शताब्दी की सर्वाधिक लोकप्रिय महिला साहित्यकार के रूप में वे जीवन भर पूजनीय बनी रहीं। वर्ष 2007उनकी जन्म शताब्दी के रूप में मनाया गया।


27अप्रैल 1982 को भारतीय साहित्य में अतुलनीय योगदान के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार से इन्हें सम्मानित किया गया था।


गूगल ने इस दिवस की याद में वर्ष2018 में गूगल डूडल के माध्यम से मनाया । 

कामायनीकार जयशंकर प्रसाद छायावादी चतुष्टय के कवि


30 जनवरी 1881- 14जनवरी 1937

1-प्रसाद जी कवि, नाटकार, कथाकार, उपन्यासकार और निबन्धकार थे। 

2-वे हिन्दी के छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक हैं lउन्होंने हिंदी काव्य में छायावाद की स्थापना की l
 3-उन्होंने कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास और आलोचनात्मक निबंध आदि विभिन्न विधाओं में रचना की। उनकी रचनाएँ हैं;

* काव्य: झरना, आँसू, लहर, कामायनी, प्रेम पथिक
*नाटक: स्कंदगुप्त, चंद्रगुप्त, ध्रुवस्वामिनी, जन्मेजय का नाग यज्ञ, राज्यश्री, अजातशत्रु, विशाख, एक घूँट, कामना, करुणालय, कल्याणी परिणय, अग्निमित्र, प्रायश्चित, सज्जन

* कहानी संग्रह: छाया, प्रतिध्वनि, आकाशदीप, आँधी, इंद्रजाल

*उपन्यास : कंकाल, तितली और इरावती ।

आप(स्वरचित)

मेरी सबसे कठिन परीक्षा है आप तो मेरी सबसे सरल सफलता हैं आप मेरा सबसे मजबूत विश्वास है आप तो सबसे कोमल स्पर्श हैं आप मेरा सबसे कीमती गहना है ...